Monday, November 24, 2014

कुछ कविताएँ-२





घर के दरवाज़े की घंटी बजाते हैं 

और खुद ही पूछते है “कौन है?”

बच्चे ये खेल खेलते है

और खेल खेल में शायद यही बताते है

खुद हम अपनी ही तलाश है

                       -तलाश


माँ लगती है

छोटी सी बच्ची कभी-कभी,

छोटी कोई बच्ची भी और

माँ सी लगती है कभी-कभी

                     -माँ




जिनके बाजू नहीं होते

ज्यादा बोझ उठा लेते हैं,

खो देते है जो आँखें

देख लेते है वो रूह भी,

बिन कानों के भी

सुन लेते है कुछ लोग

दिल की बातें सारी,

जहाँ जो नहीं होता

वहाँ  मिल जाता है वो

          -उम्मीद


इस खाली जगह पे
क्यों मंडराता है ये परिंदा,

यहाँ पे शायद
उसका आशियाना था
                 -पेड़ 


कोई मारता है इन्हें

या करती है खुदकुशी ये

पता नहीं...

पर हाँ

मर रही है संवेदनाएं

        -संवेदनाएं


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